जीवनसंवाद: अपने दर्द को आवाज देना

हम मुश्किल वक्‍त में दूसरों के साथ खड़े होते हैं. दोस्‍तों का साथ बखूबी निभाते हैं. अपनों की पीड़ा/दर्द को समझने की कोशिश में लगे रहते हैं. यह सब हमारे संवेदनशील होने का प्रमाण है. लेकिन ऐसा करते हुए दुनिया के लिए अपने को आगे रखते हुए कभी-कभी हम खुद को पीछे धकेल देते हैं. अपनी पीड़ा, दर्द और गुस्से को अभिव्‍यक्‍त करना बंद कर देते हैं. हम भूल जाते हैं, स्‍वयं की ओर देखना, खुद को भी संभालते रहना.

अपने दर्द की अभिव्‍यक्ति हमें आती है. यह तो मनुष्‍य का सहज गुण है. कैसी मजेदार बात है कि बच्‍चे की वह सारी आदतें उसके बड़े होते-होते बदलने लगती हैं, जिनसे उसका मन बचपन में सेहतमंद रहता है. बच्‍चे का मन किसी भी बड़े की तुलना में इसलिए हल्‍का, साफ होता है क्‍योंकि वह दुखी होने पर अपने को आसानी से अभि‍व्‍यक्‍त कर लेता है. वह दुखी होता है तो सरलता से रो लेता है. प्रसन्‍न होता है तो मौज में हंसता है.हम उसे गंभीरता का पाठ पढ़ाने की चिंता में डूबे रहते हैं. जबकि वह तो हर चीज़ को सरलता से लेता है. वह संकट को लेकर सावधान रहता है, लेकिन दुखी नहीं होता. चिंता के तालाब में डूबने के बहाने नहीं तलाशता. यह सब तो हम बच्‍चे को उसकी उम्र बढ़ने के साथ सिखाने की कोशिश में रहते हैं. यही सीखते हुए वह अपनी पीड़ा की अभिव्‍यक्ति भूल जाता है. वह अपने दर्द को खुलकर बताने की जगह उसे अपने भीतर रखने लगता है. मनुष्‍य के मन में विकार यहीं से बैठना आरंभ होते हैं.


यह कोयला मन की ऊर्जा, हमारी कोमलता के साथ प्रेम और स्‍नेह को भी अपने रंग में रंग लेता है. हमें कब पता चलता है. जब एक दिन वह रिश्‍तों में हिंसा, अलगाव के फैसले, अपने और दूसरे के जीवन को प्रभावित करने के निर्णय कर बैठता है, जिसकी बाहर से हम उससे अपेक्षा नहीं रखते.

यह मन में भीतर सुलग रही उस प्रक्रिया का परिणाम होता है, जिसकी ओर हमारी नजर नहीं जाती. हमारी नजर इस ओर तभी जाती है,जब भीतर से सुलगता ( अपने भीतर कुंठा, हिंसा, दर्द दबाए) व्‍यक्ति केवल अपने परिवार, दोस्‍तों के लिए मुश्किल खड़ी नहीं करता. वह अपने निर्णय, प्रेम की कमी से सबके जीवन पर कुछ न कुछ असर डालने की क्षमता रखता है.इसलिए, जरूरी है कि हम अपने नजदीकी व्‍यक्तियों के व्‍यवहार पर नजर रखें. केवल सबसे मिलने से काम नहीं बनने वाला. मिलना ऐसा होना चाहिए, जिसमें मन की बातें भी हों. जिंदगी में क्‍या घट रहा है, कैसे चीज़ों को संभाला जा रहा है, यह पता हो. सिर्फ मुश्किल के दिन में ही अपने प्रिय का ध्‍यान नहीं रखना है. संकट के दिनों से कहीं मुश्किल सामान्‍य दिनों का उबाऊपन होता है. ऊब होती है. नीरसता होती है. अपने भीतर नीरसता और ऊब को नहीं जमने देना है.

जब भी ऊब मन में जमने लगे. उसे कहना है. हिंसा को किसी भी रूप में सहना, अपने प्रति हिंसा है. कुंठा से मन में गहरी निराशा, अविश्‍वास की काई जमने लगती है. इस काई की निरंतर सफाई करनी है. मन में मैल नहीं जमने देना है. यह मैल जीवन में आनंद, सुख को सोखकर हमें दुखी की गली में धकेलने का काम करता है. इसलिए इसे हर दिन, नियमित करना है.


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